Natasha

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राजा की रानी

एक काम था- भिक्षा के लिए बाहर जाना सन्यासी के लिए सर्वप्रधान कार्य न होने पर भी प्रधान कार्य था! क्योंकि सात्वि‍क भोजन के साथ इसका घनिष्ठ सम्बन्ध था। किन्तु महाराज स्वयं यह नहीं करते थे, उनके सेवक ही पारी-पारी से किया करते थे। सन्यासी के अन्य दूसरे कर्त्तव्यों में तो उनके दूसरे दो चेलों को मैं बहुत जल्द लाँघ गया; परन्तु केवल इस काम में बराबर लँगड़ाता रहा! इसे किसी दिन भी अपने लिए सहज और रुचिकर न बना सका। फिर भी, एक सुभीता यह था कि वह हिन्दुस्तानियों का देश था। मैं भले-बुरे की बात नहीं कहता- मैं सिर्फ यही कहता हूँ कि बंगाल देश की नाईं वहाँ की औरतें 'बाबा हाथ जोड़ती हूँ, और एक घर आगे जाकर देखो' कहकर उपदेश नहीं देतीं; और पुरुष भी 'नौकरी न करके तुम भिक्षा क्यों माँगते हो?' यह कैफियत तलब नहीं करते। धनी-निर्धन, बिना किसी भेदभाव के सब ही, प्रत्येक घर से, भिक्षा देते हैं- कोई विमुख नहीं जाता। इसी तरह दिन जाने लगे, पन्द्रह दिन तो उस आम के बाग में ही कट गये। दिन के समय तो कोई आपत-विपत नहीं थी, केवल रात्रि को मच्छरों के काटने की जलन के मारे मन ही मन लगता था कि, भाड़ में जाय मोक्ष-साधना। यदि शरीर के चमड़े को कुछ और मोटा न किया जायेगा, तो अब जान न बचेगी। अन्यान्य विषयों में बंगाली लोग चाहे जितने भी श्रेष्ठ क्यों न हों, परन्तु बंगाली चमड़े की अपेक्षा हिन्तुस्तानी चमड़ा, इस विषय में सन्यास के लिए बहुत अधिक अनुकूल है, यह स्वीकार करना ही पड़ेगा। उस दिन प्रात:स्नान करके सात्वि‍क भोजन प्राप्त करने के प्रयत्न में बाहर जा ही रहा था कि गुरु महाराज ने बुलाकर कहा,

“भारद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा! जिनहिं रामपद अति अनुरागा”

अर्थात् “स्ट्राइक दि टेण्ट” (तम्बू उखाड़ लो)- प्रयाग की यात्रा करनी होगी। परन्तु, यह कार्य कुछ सहज नहीं था, सन्यासी की यात्रा जो ठहरी! सधे हुए टट्टुओं को खोजते और उन पर सामान लादते, ऊँट पर महाराज की जीन कसते, गाय-बकरियों को साथ लेते, गट्ठे गठरियाँ बाँधते, सिलसिले से लगाते लगाते, एक पहर बीत गया। इसके बाद खाना खाकर दो कोस दूर संध्या् के पहले ही बिठौरा गाँव के गेंवडे एक विराट वटवृक्ष के नीचे डेरा जमाया गया। जगह बहुत ही सुन्दर थी, गुरु महाराज को खूब पसन्द आई। यह तो हुआ, परन्तु भारद्वाज मुनि के उस स्थान तक पहुँचते-पहुँचते कितने महीने लग जायेंगे, इसका मैं अनुमान नहीं कर सका।

इस बिठौरा गाँव का नाम अभी तक मुझे क्यों याद रहा है सो यहाँ कहता हूँ। उस दिन पूर्णिमा तिथि थी; इसलिए, गुरु के आदेश से हम तीनों जने तीन दिशाओं में भिक्षा के लिए बाहर निकल पड़े थे। अकेला होता तो उदर-पूर्ति के लिए कम कोशिश न करता। परन्तु, आज मेरी वह चाल नहीं थी, इसलिए बहुत कुछ निरर्थक यहाँ-वहाँ घूम रहा था। एकाएक एक मकान के खुले दरवाजे के भीतर से मुझे एक बंगाली लड़की का चेहरा दिखाई पड़ गया। उसके कपड़े यद्यपि देशी करघे पर बुने हुए टाट की तरह मोटे थे, किन्तु उन्हें पहिनने के विशेष ढंग ने ही मेरे कुतूहल को उत्तेजित कर दिया। मैंने सोचा, पाँच-छ: दिन से इस गाँव में हूँ, करीब-करीब सब घरों में हो आया हूँ, परन्तु बंगाली स्त्री तो दूर की बात, बंगाली पुरुष का चेहरा तक भी नज़र नहीं आया। साधु-सन्यासियों के लिए कहीं रोक-टोक नहीं। भीतर प्रवेश करते ही वह स्त्री मेरी ओर देखने लगी। उसका मुँह मैं आज भी याद कर सकता हूँ। इसका कारण यह है कि दस-ग्यारह वर्ष की लड़की की ऑंखों में इतनी करुण, इतनी मलिन-उदास दृष्टि और कहीं कभी देखी है, ऐसा मुझे याद नहीं आता। उसके मुँह से, उसके होठों से, उसकी ऑंखों से-उसके सर्वांग से मानो दु:ख और निराशा फूटी पड़ती थी। मैंने एकबारगी बँगला में कहा, “कुछ भिक्षा देना, माँ।” पहले तो वह कुछ न बोली। इसके बाद उसके होंठ एक-दो बार काँपकर फूल उठे और वह भर-भराकर रो उठी।

मैं मन ही मन कुछ लजाकर रह गया। क्योंकि, सामने कोई न था तो भी, पास के घर में से बिहारी औरतों की बातचीत सुनाई पड़ रही थी। उनमें से यदि कोई एकाएक बाहर आकर इस अवस्था में हम दोनों को देख ले, तो वह क्या सोचेगी, क्या कहेगी यह कुछ भी मैं न सोच सका। खड़ा रहूँ, या प्रस्थान कर जाऊँ, यह निश्चय कर सकने के पूर्व ही उस लड़की ने रोते-रोते एक साँस में ही हजार प्रश्न पूछ डाले, “तुम कहाँ से आ रहे हो? कहाँ रहते हो? तुम्हारा घर क्या वर्ध्दमान जिले में है? तुम वहाँ कब जाओगे? तुम्हें क्या राजापुर मालूम है? वहाँ के गौरी तिवारी को चीन्हते हो?”

मैं बोला, “तुम्हारा घर क्या वर्ध्दमान जिले के राजापुर में है?”

उस लड़की ने हाथों से ऑंखों का जल पोंछते हुए कहा, “हाँ, मेरे पिता का नाम गौरी तिवारी है और भाई का नाम रामलाल तिवारी है। उन्हें क्या तुम चीन्हते हो? तीन महीने हुए मैं ससुराल आईं हूँ, अभी तक एक भी चिट्ठी मुझे नहीं मिली- पिता, भाई, माँ गिरिबाला और बाबू कैसे हैं, कुछ भी नहीं जानती। वह जो पीपल का वृक्ष है- उसके नीचे मेरी बहिन की ससुराल का मकान है। उस सोमवार को जीजी गले में फाँसी लगाकर मर गयी- पर वे लोग कहते हैं कि- नहीं, वे हैजे से मरी हैं।”

मैं विस्मय के मारे हतबुद्धि-सा हो गया। यह क्या बात है? ये लोग, देखता हूँ कि पूरे हिन्दुस्तानी हैं; परन्तु, लड़की एकबारगी शुद्ध बंगालिन है। इतनी दूर, इन घरों में, इन लड़कियों की ससुरालें क्योंकर हुई और इनके पति, सास-ससुर आदि यहाँ क्या करने आए!

वह बोली, “जीजी राजापुर जाने के लिए रात-दिन रोती थीं, खाती नहीं थीं, सोती नहीं थीं। इसीलिए उनके बाल धन्नी से बाँधकर उन्हें सारे दिन और सारी रात खड़ा कर रक्खा था। इसीलिए गले में रस्सी डालकर मर गयी।”

मैंने पूछा, “तुम्हारे भी सास-ससुर क्या हिन्दुस्तानी हैं?”

उस लड़की ने फिर एक बार रोकर कहा, “हाँ। मैं उन लोगों की बातचीत कुछ भी नहीं समझ पाती, उन लोगों का खाना मैं मुँह में नहीं डाल सकती- मैं तो दिन-रात रोया करती हूँ। परन्तु, पिता न तो हमें चिट्ठी ही लिखते हैं और न लिवा ही ले जाते हैं।”

मैंने पूछा, “अच्छा, तुम्हारे पिता ने तुम्हें इतनी दूर ब्याहा ही क्यों?”

लड़की बोली, “हम लोग तिवारी जो हैं। हमारी जाति के ब्याह-योग्य लड़के उस देश में तो मिलते नहीं।”

“तुम्हें क्या वे मारते-पीटते भी हैं?”

“और नहीं तो क्या? यह देखो न!” इतना कहकर उस लड़की ने भुजाओं में, पीठ के ऊपर, मार के निशान दिखाए और फफक-फफककर रोते हुए कहा, “मैं जीजी की तरह गले में फाँसी लगाकर मर जाऊँगी।”

उसका रोना देखकर मेरे भी नेत्र सजल हो उठे और प्रश्नोत्तर या भीख की अपेक्षा किये बगैर ही मैं बाहर हो गया। किन्तु, वह लड़की मेरे पीछे-पीछे चली आई और कहने लगी, “मेरे पिता के पास जाकर तुम कहोगे न? वे मुझे यहाँ से एक दफा ले जाँय, नहीं तो मैं-” किसी तरह थोड़ा-सा सिर हिलाकर स्वीकार करके तेज चाल से अदृश्य हो गया। उस लड़की का हृदयभेदी आवेदन मेरे दोनों कानों में गूँजने लगा।

रास्ते के मोड़ के ऊपर ही एक बनिये की दुकान थी। प्रवेश करते ही दुकानदार ने आदर के साथ मेरी अभ्यर्थना की। खाद्य द्रव्य की भीख न माँगकर जब मैं एक चिट्ठी लिखने का कागज और कलम-दावात माँग बैठा, तब उसने आश्चर्य तो किया, परन्तु इन्कार नहीं किया। उसी जगह बैठकर मैंने गौरी तिवारी के नाम पर एक पत्र लिखकर डाल दिया। समस्त विवरण विवृत करने के बाद अन्त में यह बात लिखना भी मैं नहीं भूला कि लड़की की बहिन हाल में ही फाँसी लगाकर मर गयी है और वह खुद भी, मार-पीट, अत्याचार सहन न कर सकने के कारण उसी पथ पर जाने का संकल्प कर चुकी है। तुम खुद आकर कुछ उपाय न करोगे तो क्या हो जायेगा, सो कहा नहीं जा सकता। बहुत सम्भव है कि तुम्हारी चिट्ठी-पत्री ये लोग तुम्हारी लड़की को न देते हों। उस पर ठिकाना लिखा, वर्दवान जिले में राजापुर ग्राम। मालूम नहीं कि वह पत्र गौरी तिवारी को पहुँचा या नहीं; और पहुँचा भी, तो उसने कुछ किया या नहीं। परन्तु वह घटना मेरे मन पर इस तरह मुद्रित हो गयी है कि, इतने समय बाद भी, पूरी तरह याद बनी हुई है; तथा इस आदर्श हिन्दू समाज के सूक्ष्माति-सूक्ष्म जाति-भेद के विरुद्ध एक विद्रोह का भाव आज भी मेरे मन से नहीं जाता।

सम्भव है, यह जाति-भेद का सिद्धान्त बहुत ही अच्छा हो; जब कि इसी उपाय से सनातन हिन्दू जाति आज तक बची हुई है, तब इसकी प्रचण्ड उपकारिता के सम्बन्ध संशय करने के लिए या प्रश्न करने के लिए और कुछ शेष नहीं रहता। कहीं कोई दो बदनसीब लड़कियाँ दु:ख न सह सकने के कारण गले में फाँसी लगाकर मर जाँयगी, इस डर से इसका कठोर बन्धन बिन्दुमात्र शिथिल करने की कल्पना करना भी पागलपन है। किन्तु उस लड़की का रोना जो मनुष्य अपनी ऑंखों देख आया है उसके लिए यह साध्य् नहीं हो सकता कि वह इस प्रश्न को अपने पास में आने से रोक सके कि किसी तरह टिके रहना- अपना अस्तित्व मात्र बनाए रखना ही क्या जीवन की चरम सार्थकता है? इस तरह की तो बहुत-सी जातियाँ अपना अस्तित्व बनाए हुए मौजूद हैं। कोरकू हैं, कोल, भील-संथाल हैं, प्रशान्त महासागर के अनेक छोटे-मोटे द्वीपों की अनेक छोटी-मोटी जातियों की मनुष्य सृष्टि शुरू से अभी तक वैसी ही बनी हुई हैं। अफ्रीका में हैं, अमेरिका में हैं; उन जातियों में भी इस तरह के सब कठोर सामाजिक आईन-कानून मौजूद हैं जिन्हें सुनकर शरीर का रक्त पानी हो जाता है। उम्र के लिहाज से वे जातियाँ यूरोप की अनेक जातियों के अति वृद्ध पितामहों की अपेक्षा भी प्राचीन हैं, और हमसे भी अधिक पुरातन हैं। किन्तु इसलिए ये जातियाँ हमारी अपेक्षा सामाजिक आचार-व्यवहार में श्रेष्ठ हैं, ऐसा अद्भुत संशय, मैं समझता हूँ, किसी के मन में न उठता होगा। सामाजिक समस्याएँ झुण्ड बाँधकर सामने नहीं आतीं। यों ही एकाध क्वाचित् कदाचित् ही आविर्भूत होती है। अपनी दोनों बंगाली लड़कियों को हिन्दुस्तानियों के घर ब्याहते समय गौरी तिवारी के मन में शायद इस तरह का प्रश्न आया था। किन्तु, वह बेचारा इस दुरुह प्रश्न से छुटकारा पाने का कोई रास्ता न खोज सकने के कारण ही अन्त में, सामाजिक यूपकाठ के ऊपर दोनों कन्याओं का बलिदान देने के लिए बाध्यन हुआ था। जो समाज इन दोनों निरुपाय क्षुप्र बालिकाओं के लिए भी स्थान न दे सका, जो समाज अपने को इतना-सा भी उदार बनाने की शक्ति नहीं रखता, उस लँगड़े निर्जीव समाज के लिए अपने मन में मैं किंचित्-मात्र भी गौरव का अनुभव नहीं कर सका। कहीं किसी एक बड़े भारी लेखक के लेख में पढ़ा था कि हमारे समाज ने जिस एक बड़े सामाजिक प्रश्न का उत्तर जगत के सामने 'जाति-भेद' के रूप में उपस्थित किया है, उसका अन्तिम फैसला आज तक भी नहीं हुआ है। ऐसा ही कुछ उसमें कहा गया था। किन्तु उस समस्त युक्तिहीन उच्छ्वास का उत्तर देने की भी मेरी प्रवृत्ति नहीं होती। 'हुआ नहीं है' और 'होगा नहीं' ऐसा प्रबल कण्ठ से घोषित करके जो लोग अपने ही प्रश्न के उत्तर को खुद ही दबा देते हैं उनको जवाब देने की भी प्रवृत्ति नहीं होती। खैर, जाने दो।

दुकान से उठकर और ढूँढ़-खोजकर डाक-बक्स में उस बैरंग पत्र को डालकर जब मैं अपने डेरे पर आ पहुँचा, तब मेरे अन्यान्य सहयोगी आटा, दाल आदि संग्रह करके लौटे न थे।

मैंने देखा कि 'साधु-बाबा' आज मानो कुछ खीझे हुए हैं। कारण भी उन्होंने स्वयं प्रकट कर दिया; बोले, “यह गाँव साधु-सन्यासियों के प्रति उतना अनुरक्त नहीं है, सेवादि की व्यवस्था भी वैसी सन्तोषजनक नहीं करता; इसलिए कल ही इस स्थान का त्याग कर देना होगा!” 'जो आज्ञा' कहकर मैंने उसी क्षण उसका अनुमोदन कर दिया। मन के भीतर पटना देखने का जो प्रबल कुतूहल छिपा था, अपने पास मैं उसे और अधिक ढँककर न रख सका।

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